Mahadevi Verma

                                                              महादेवी वर्मा,




जन्म : सन् 1907, फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) प्रमुख रचनाएँ: दीपशिखा, यामा (काव्य संग्रह) श्रृंखला की कड़ियाँ, आपदा, संकल्पिता, भारतीय संस्कृति के स्वर (निबंध-संग्रह); अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार (संस्मरण/रेखाचित्र) प्रमुख पुरस्कार : ज्ञानपीठ पुरस्कार ('यामा संग्रह के लिए। 1983 ई. में), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का भारत भारती पुरस्कार, पद्मभूषण (1956 ई.) निधन : सन् 1987, इलाहाबाद

संसार के मानव समुदाय में वही व्यक्ति स्थान और सम्मान पा सकता है, वही जीवित कहा जा सकता है जिसके हृदय और मस्तिष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्तित्व द्वारा मनुष्य समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौद्धिक संबंध भी स्थापित कर सकने में समर्थ हो।

साहित्य सेवी और समाज सेवी दोनों रूपों में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा रही है। महात्मा गांधी की दिखाई राह पर अपना जीवन समर्पित कर उन्होंने शिक्षा और समाज कल्याण के क्षेत्र में निरंतर कार्य किया। नारी समाज में शिक्षा प्रसार के उद्देश्य से उन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की। साहित्य जगत में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा बहुमुखी प्रतिभा के रचनाकार के रूप में रही है। अगर कविता के क्षेत्र में वे छायावाद के चार स्तंभों में से एक मानी जाती हैं (अन्य तीन हैं- पंत, प्रसाद और निराला), तो अपने निबंधों और संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के कारण एक अप्रतिम गद्यकार के रूप में उनकी चर्चा होती रही है। कविता और गद्य इन दोनों क्षेत्रों में उनकी प्रतिभा अलग-अलग स्वभाव लेकर सक्रिय हुई दिखती है। कविताओं में वे अपनी आंतरिक वेदना और पीड़ा को व्यक्त करती हुई इस लोक से परे किसी और सत्ता की ओर अभिमुख दिखलाई पड़ती है, तो अपने गद्य में उनका महरा सामाजिक सरोकार स्थान पाता है। उनकी श्रृंखला की कड़ियाँ (1942 ई.) उस समय की अद्वितीय रचना है, जो हिंदी में स्त्री-विमर्श की भव्य प्रस्तावना है। उनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र अपने आस पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं, जिनकी साधारणता हमारा ध्यान नहीं खींच पाती लेकिन महादेवी जी की मर्मभेदी और करुणामयी दृष्टि उन चरित्रों की साधारणता में असाधारण तत्त्वों का संधान करती है। इस तरह समाज के शोषित पीड़ित तबके को उन्होंने अपनी गद्य-रचनाओं में नायकत्व प्रदान किया है। उनके इस प्रयास ने हिंदी के साहित्यिक समाज पर ऐसा गहरा असर डाला कि संस्मरणात्मक रेखाचित्र की विधा के लिए शोषित पीड़ित आम जन को विषय वस्तु के रूप में मान्यता मिल गई है।








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